डॉक्टर राही मासूम रज़ा
by Qurban Ali
मशहूर साहित्यकार डॉक्टर राही मासूम रज़ा को ज्यादातर लोग फ़िल्मों के डायलॉग और दूरदर्शन के धारावाहिक ‘महाभारत’ के डाॅयलाग लेखक के रूप में जानते हैं। लेकिन राही की असल शख्सियत इस सबसे बिल्कुल मुख्तलिफ थी। फिल्मी लेखक बनने और बंबई (अब मुंबई) जाने पर तो उन्हें अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के कुछ संकीर्ण दिमागवाले प्रोफेसरों और पापी पेट ने मजबूर किया था। वरना वह तो अपने गांव गंगौली में रह कर खुश थे और ऐसे हिन्दुस्तान का सपना देखा करते थे, जिसकी सियासत में मजहब की कोई जगह न हो और जहां हिन्दोस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब (संस्कृति) सबसे ऊपर हो। उनके लिए गंगा सर्वोच्च थी, जिसे वह अपनी मां और देश की सबसे बड़ी सांस्कृतिक धरोहर मानते थे। राही ने कहीं लिखा है ‘मेरी तीन मांए हैं-नफीसा बेगम जिनके पेट से मैं पैदा हुआ, गंगा जिसकी गोद में खेला और अलीगढ़ युनीर्विसटी जहां पढ़ा।’ शायद पंडित जवाहरलाल नेहरू के अलावा गंगा का उतना सुंदर वर्णन किसी और ने नहीं किया, जितना राही ने।
गंगा को लेकर उनकी एक मशहूर नज़्म है:
‘मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुंह पर फेंको
और उस योगी से कह दो-महादेव
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह ज़लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गरम
लहू बन कर दौड़ रही है.’
राही के लिए गंगा सबकी थी, किसी एक धर्म जाति संप्रदाय या व्यक्ति की नहीं। अपनी वसीयत के तौर पर उन्होंने एक नज़्म लिखी थी ‘वसीयत’ –
‘मैं तीन माओं का बेटा हूँ. नफ़ीसा बेगम, अलीगढ़ युनिवर्सिटी और गंगा. नफ़ीसा बेगम मर चुकी हैं. अब साफ़ याद नहीं आतीं। बाकी दोनों माएं ज़िदा हैं और याद भी हैं।
मेरा फ़न तो मर गया यारों
मैं नीला पड़ गया यारों
मुझे ले जा के ग़ाज़ीपुर की गंगा की गोदी में सुला देना
अगर शायद वतन से दूर मौत आए
तो मेरी ये वसीयत है
अगर उस शहर में छोटी सी एक नद्दी भी बहती हो
तो मुझको
उसकी गोद में सुला कर
उससे कह देना
कि गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है.’
लेकिन राही मासूम रज़ा की ये ख़्वाहिश पूरी नहीं हो सकी और उन्हें 15 मार्च 1992 को मुंबई के ही एक क़ब्रिस्तान में दफना दिया गया।
राही पहली अगस्त 1927 को गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में पैदा हुए थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। बचपन में टांग में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गई, लेकिन इंटरमीडिएट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गए और यहीं से एम.ए. करने के बाद उर्दू में ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ पर पी.एच.डी. की। ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ उन कहानियों का संग्रह है, जो पुराने दौर में मुसलमान औरतें (ख़ासकर दादी-नानी) छोटे बच्चों को रात में बतौर कहानी सुनाया करती थीं। पी.एच.डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गए और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे। यहीं रहते हुए राही ने ‘आधा गांव’, ‘दिल एक सादा काग़ज’, ‘ओस की बूंद’, ‘हिम्मत जौनपुरी’ उपन्यास व 1965 के भारत-पाक युद्ध में मारे गए शहीद वीर अब्दुल हमीद की जीवनी ‘छोटे आदमी की बड़ी कहानी’ लिखी। उनकी यह सभी कृतियां हिन्दी में थीं। इससे पहले वह उर्दू में एक महाकाव्य ‘1857’ तथा छोटी-बड़ी उर्दू नज़्में व गज़लें लिखे चुके थे, लेकिन उर्दूवालों से इस बात पर झगड़ा हो जाने पर कि हिन्दोस्तानी जबान सिर्फ फ़ारसी रस्मुलखत (फारसी लिपि) में ही लिखी जा सकती है, राही ने हिंदी में लिखना शुरू किया ये और बात है कि उन्हें देवनागरी लिपि में लिखना नहीं आता था और अपनी स्क्रिप्ट वह पहले उर्दू में लिखते थे जिसे बाद में देवनागरी में लिप्यांतरित किया जाता था।उनके मशहूर उपन्यास ‘आधा गांव’ की मूल मैन्यूस्क्रिप्ट (पांडुलिपि) उर्दू यानि फ़ारसी रस्मुलखत में ही लिखी गयी और बाद में उनके अज़ीज़ दोस्त प्रो कुंवरपाल सिंह ने उसे देवनागरी में लिपियान्तरित किया। राही ने अपनी इस कृति को कुंवरपाल सिंह के नाम ही किया है।
राही मासूम रज़ा पैदाइश बागी थे और ऐसी किसी चीज पर ‘कप्रोमाइज’ नहीं कर सकते थे, जो उनके दर्शन, विचार व सिद्धांत के खिलाफ हो। इसलिए उनकी ऐसे लोगों से कभी नहीं पटी, जो छोटी-छोटी बातें के लिए ‘कंप्रोमाइज’ कर लेते हैं और दोगला चरित्र अख्तियार कर लेते हैं। इमर्जेंसी के दौरान कुछ पत्रकारों और लेखकों को छोड़कर लगभग सारे लोग उस वक़्त की इंदिरा सरकार की जी हज़ूरी में लगे हुए थे। ‘फ़िल्म राइटर्स असोसिएशन’ ने भी इंदिरा गांधी और इमर्जेंसी के समर्थन में एक प्रस्ताव पास करने की कोशिश की।राही मासूम रज़ा अकेले ऐसे लेखक थे जिन्होंने इसका विरोध किया उन्होंने उसे मानने से साफ़ इनकार कर दिया। उनके कई दोस्तों ने उन्हें सलाह दी कि आप ‘वॉक आउट’ कर जाइए लेकिन उन्होंने ज़ोर दिया कि उनके विरोध को बाक़ायदा दर्ज किया जाए।
एक दूसरी घटना उनके छात्र जीवन की है। अपनी जवानी के दिनों में राही पढ़ने के साथ-साथ अपने बड़े भाई मूनिस रज़ा के साथ कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य थे और पार्टी का काम भी किया करते थे।एक बार कम्यूनिस्ट पार्टी ने तय किया कि गाज़ीपुर नगरपालिका के अध्यक्ष पद के लिए कामरेड पब्बर राम को खड़ा किया जाए। पब्बर राम एक भूमिहीन मज़दूर थे।राही और उनके भाई मूनिस रज़ा दोनों कॉमरेड पब्बर का चुनाव प्रचार करने लगे। उसी समय कांग्रेस पार्टी ने राही के पिता बशीर हसन आबिदी को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। अब दोनों भाइयों के सामने एक बड़ा धर्मसंकट पैदा हो गया। दोनों ने अपने पिता को समझाया कि वो चुनाव में न खड़े हों। लेकिन
बशीर साहब ने कहा, “मैं 1930 से कांग्रेसी हूँ. पार्टी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर पाऊंगा।” राही ने जवाब दिया, “हमारी भी मजबूरी है हम भी अपनी पार्टी के ख़िलाफ़ नहीं जा सकते इसलिए आपके ख़िलाफ़ पब्बर राम को चुनाव लड़वाएंगे।” नतीजा ये हुआ की राही और उनके भाई मूनिस घर से सामान उठा कर पार्टी ऑफ़िस चले गए। जब चुनाव के नतीजे आए तो सब ये जान कर स्तब्ध रह गए कि एक भूमिहीन मज़दूर ने ज़िले के सबसे मशहूर वकील को भारी बहुमत से हरा दिया।
अपनी साफगोई और बेबाकी के कारण ही राही को अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग से निकाल दिया गया। उन पर आरोप लगाया गया कि वह दुश्चरित्र हैं। असलियत यह है कि उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी नैयर रज़ा से प्रेम विवाह कर लिया था और यह बात अलीगढ़ के दकियानूसी लोगों को पसंद नहीं थी। इसी इल्जाम (मॉरल ट्रापीटूयड) में राही को अलीगढ़ विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया। स्वयं राही के अनुसार ‘वह तो दिल्ली में उन्हें पनाह देने के लिए राजकमल प्रकाशन की मालकिन शीला संधू मौजूद थीं। नहीं तो उस भरी दोपहर में उन्हें कहां दर-दर भटकना पड़ता।’
हैरत की बात तो यह है कि अलीगढ़ विश्वविद्यालय के जिस उर्दू विभाग ने राही को बेइज्जत करके निकाला था, उसी उर्दू विभाग ने बाद में राही का सम्मान किया और उनकी शान में कसीदा पढ़ा। इसी स्वागत सम्मान समारोह में बोलते हुए राही ने कहा कि ‘एक समय था, जब मुझे इस विभाग से निकाला गया था और आज यही विभाग मेरा सम्मान कर रहा है।’ अलीगढ़ के उर्दू विभाग ने राही का यह सम्मान ‘महाभारत’ धारावाहिक से राही को मिली प्रसिद्धि के बाद किया।
अलीगढ़ छोड़ने के बाद राही ने नज़्म की शक्ल में अपने दोस्त शैलेश जैदी को एक खत लिखा था, जिसकी शीर्षक था ‘चांद तो अब भी निकलता होगा।’ इस खत में राही ने लगभग रोते हुए अपने शहर की खैरियत मालूम की थी और अपने दोस्त से पूछा था एक बच्चे की मानिंद कि विश्वविद्यालय परिसर का क्या हाल है? चांद कैसे निकलता है? और सूरज कैसे? और जिन पेड़-पौधों को मैं छोड़ आया था, वो कैसे हैं? इसी नज़्मे का एक शेर था-
ऐ सबा तू तो उधर से गुजरती होगी
तू ही बता अब वहां मेरे पैरों के निशां कैसे हैं
और एक शेर में पूरे शहर पर कटाक्षा था-
मैं तो पत्थर था फेंक दिया, ठीक किया
अब उस शहर में लोगों के शीशे के मकां कैसे हैं?
अलीगढ़ छोड़ने के बाद राही कुछ समय दिल्ली में रहे। फिर वह रोजी-रोटी की तलाश में बंबई चले गए। यह दौर राही की जिन्दगी का सबसे बुरा दौर था और राजकमल प्रकाशन की मालकिन शीला संधु व उनके दो-चार दोस्तों ख़ासकर कमलेश्वर और धर्मवीर भर्ती के अलावा राही का साथ देने वाला कोई नहीं था।राही फिल्म लेखन को घटिया काम नहीं मानते थे, ‘सेमीक्रिएटिव’ मानते थे इसलिए मैने शुरू में कहा कि फिल्म लेखन राही का बुनियादी मक़सद नहीं था जरिया-ए-माश (जीवकोपार्जन का तरीका) था। उनकी असल तड़प तो थी ‘हिन्दोस्तानियत’ की तलाश, जिसे वह अपने सीने से लगाकर ले गए।राही की जिन्दगी का सबसे बड़ा सदमा देश का विभाजन था, जिसके लिए वह मुसलिम लीग, कांग्रेस और धर्म की राजनीति को दोषी मानते थे। उनके लिए सबसे बड़ा धर्म ‘हिन्दोस्तानियत’ थी और जिसकी संस्कृति को वह अपनी सबसे बड़ी धरोहर व विरासत मानते थे। इस ‘हिन्दोस्तानियत’ को नुकसान पहुंचानेवाली वह हर उस शक्ति के खिलाफ थे, चाहे वह मुसलिम सांप्रदायिकता की शक्ल में हो या हिन्दू सांप्रदायिकता की शक्ल में। इसीलिए वह अपने जीवनपर्यन्त इन शक्तियों की आंख की किरकिरी बने रहे।
अपने पहले उपन्यास ‘आधा गांव’ में राही ने उन चरित्रों का बहुत ही सजीव चित्रण किया है, जो धर्म के नाम पर विद्वेष फैलाने, धर्म का राजनीतिकरण करने और अन्ततः देश का विभाजन कराने में सफल रहे। राही के संपूर्ण लेखन में यही ‘कंसर्न’ प्रमुखता से मिलते हैं। सांप्रदायिकता की राजनीति, देश का विभाजन, इससे उजड़े और प्रभावित हुए गरीब व साधारण लोग, खासकर संयुक्त पंजाब-बंगाल, उत्तरप्रदेश व बिहार के लोग। तबाह होती हिन्दुस्तानी संस्कृति, गिरते हुए सामाजिक मूल्य, लुप्त होती ढ़ाई हजार वर्ष पुरानी सभ्यता वगैरह।
यूं तो डॉक्टर राही मासूम रजा से मेरी कई मुलाकात हुईं, लेकिन दिसंबर 1990 में हुई उनसे आखिरी मुलाकात अब एक ऐतिहासिक यादगार बन गई है। उस समय उत्तर भारत खासकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश में सांप्रदायिक माहौल बड़ा तनावपूर्ण था। अलीगढ़ और उसके आस-पास खौफलाक दंगे हो रहे थे। मैं चूंकि उन दंगों का प्रत्यक्षदर्शी था, इसलिए बहुत हताश और सहमा हुआ था। आशा की कोई किरण दिखाई नहीं पड़ रही थी। ऐसे निराशाजनक माहौल में राही ने मेरी हौसला अफ़जाई की। मैं उनसे बार-बार कह रहा था कि बंबई में बैठकर आप वहां की स्थिति का अंदाजा नहीं लगा सकते, लेकिन राही लगातार लोगों के एक-दूसरे से इतरे गहरे संबंध हैं कि इन दंगों से टूटनेवाले नहीं हैं। उन्होंने कहा था कि लोग जब यह समझ जाएंगे कि धर्म का इस्तेमाल सत्ता पाने या अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए राजनीतिक लोगों ने किया है, तो फिर बलवे नहीं होंगे। आज सोचता हूं कि उत्तरप्रदेश के संदर्भ में उनकी यह टिप्पणी कितनी सटीक थी।
धारावाहिक ‘महाभारत’ की स्क्रिप्ट लिखते समय राही ने व्यास की ‘महाभारत’ को सौ से अधिक बार पढ़ा था। हिन्दी-अंग्रेजी, संस्कृत, फारसी, उर्दू लगभग उन तमाम भाषाओं में, जिनमें महाभारत उपलब्ध हैं। ‘गीता’ लिखते समय वह अलीगढ़ आ रहे थे। उनका कहना था कि गीता ‘महाभारत’ का सार है और इसे वह सुकून से लिखना चाहते हैं। भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने राही पर आरोप लगाया था कि वह ‘महाभारत’ को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं और कृष्ण चरित्र को बदलकर दिखा रहे हैं। इस पर राही ने अटल जी को फोन करके पूछा था कि क्या आपने यह बयान दिया है? और यह कि क्या आपने ‘महाभारत’ पढ़ी है? अटल जी के ‘हां’ कहने पर वह उन पर बिगड़ गए और कहा कि आप झूठ बोलते हैं। यदि आपने ‘महाभारत’ पढ़ी होती, तो मुझे यकीन है कि आप जैसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति यह बयान नहीं देता और अटल जी लाजवाब हो गए।वैसे बहुत कम लोगों को मालूम है कि जनसंघ नेता स्व. दीनदयाल उपाध्याय पर बनी ‘डाॅक्युमेंटरी’ की स्क्रिप्ट लिखवाने के लिए भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी राही के घर गए थे। राही ने स्क्रिप्ट लिखी और जब आडवाणी जी ने उसकी फीस पूछी, तो राही ने कहा कि दिल्ली में आपके साथ एक वक्त का खाना खा लूंगा।
राही मासूम रज़ा के सबसे करीबी दोस्त कुंवरपाल सिंह उनकी जीवनी में लिखते हैं, “बचपन में उन्हें घर पर पढ़ाने वाले मौलवी साहब राही को कभी पसंद नहीं थे क्योंकि उन्हें पढ़ाई से ज़्यादा पिटाई करने में मज़ा आता था। राही ने एक बार मुझे बताया था, हम पिटाई से बचने के लिए अपना जेब ख़र्च मौलवी मुनव्वर को दे देते थे।इसलिए हम लोगों का बचपन बड़ी ग़रीबी में गुज़रा और शायद यही वजह है कि ख़रीद-फ़रोख़्त की कला न मुझमें आई और न ही भाई साहब मूनिस रज़ा में। हम दोनों झट से पैसा ख़र्च करने के आदी हैं। शायद इसलिए कि मौलवी मुनव्वर का डर अभी तक हमारे दिलो दिमाग़ से नहीं निकला है। हम डरते हैं कि पैसा ख़र्च नहीं किया तो मौलवी साहब झपट लेंगें।”
कुंवरपाल सिंह, राही की जीवनी में यह भी लिखते हैं, “जब बीआर चोपड़ा ने घोषणा की कि राही मासूम रज़ा महाभारत के संवाद लिखेंगे, तो उनके पास पत्रों की झड़ी लग गई, जिनका लुब्बो लुबाब यह था कि सारे हिंदू मर गए हैं जो आप एक मुसलमान से महाभारत लिखवा रहे हैं। चोपड़ा साहब ने सभी पत्र राही के पास भेज दिए। राही की ये कमज़ोर नस थी।” वह भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बहुत बड़े अध्येता थे। अगले दिन राही ने चोपड़ा साहब को फ़ोन किया, ‘चोपड़ा साहब! महाभारत अब मैं ही लिखूंगा। मैं गंगा का बेटा हूँ. मुझसे ज़्यादा हिंदुस्तान की संस्कृति और सभ्यता को कौन जानता है?'”
इस बारे में बी आर चोपड़ा एक और कहानी बताते थे “दरअसल राही रामायण सीरियल लिखना चाहते थे लेकिन उन्हें जब ये मौक़ा नहीं मिला तो महाभारत लिखने में उनकी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी लेकिन जब मैंने कहा कि अगर आप नहीं लिखेंगे तो मैं प्रैस कांफ्रेंस करके कह दूंगा की राही महाभारत लिखने से बच रहे हैं और यही हुआ मेरी तरकीब काम आ गई।”
राही मासूम रज़ा के बारे में मशहूर था कि वो एक साथ कई स्क्रिप्ट्स पर काम करते थे। शुरू-शुरू में वो नाम बदल कर भी उपन्यास लिखा करते थे। एक वक़्त में वो जासूसी दुनिया का नॉवेल लिख रहे होते थे तो उसी समय वो एक अख़बार के लिए एक लेख भी लिख रहे होते थे। यह उस वह दौर था जब उनका काफ़ी वक्त इलाहाबाद और ग़ाज़ीपुर के बीच ग़ुज़रता था. उस वक्त इलाहाबाद से निकहत पब्लिकेशन एक ‘रूमानी दुनिया’ और एक ‘जासूसी दुनिया’ पत्रिका हर माह निकाला करते थे। जासूसी दुनिया इब्ने सफ़ी लिखा करते थे जो बहुत लोकप्रिय हो गई थी।राही, शाहिद अख़्तर के नाम से हर महीने एक नॉवेल लिखा करते थे। बहुत से नॉवेल उन्होंने आफ़ाक़ हैदर के नाम से भी लिखे। जब इब्ने सफ़ी पाकिस्तान चले गए और उन्हें एक गंभीर मानसिक बीमारी हो गई तब ये समस्या आई कि कौन नॉवेल लिखे? तब राही साहब से पूछा गया कि क्या आप जासूसी नॉवेल भी लिख सकते हैं, क्योंकि किसी महीने नाग़ा नहीं होना चाहिए। तब उन्होंने आफ़ताब नासिरी के नाम से जासूसी नॉवेल भी लिखे। उनकी ये ‘मल्टी-टास्किंग’ बहुत हैरत-अंगेज़ बात थी।”
डॉक्टर राही मासूम रज़ा बहुत जल्दी चले गए (65 बरस की उम्र में सन 1992 में) अभी तो राही को नहीं जाना था, अभी तो उन्हें बहुत काम करना था, ‘आधा गांव’ का दूसरा अंक लिखना था, गंगा की गोद में खेलना था, गंगौली (गाजीपुर) और अलीगढ़ जाकर रहना था। सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग लड़नी थी और सबसे बढ़कर अपने धर्मावलम्बियों की संख्या बढ़ाने के लिए धर्म प्रचार करना था, जिसे वह ‘हिन्दोस्तानियत’ के नाम से पुकारते थे। दरअसल, मेरी नजर में राही का जाना किसी साहित्यकार या फिल्मी ‘डायलॉग’ स्क्रिप्ट लेखक की मौत नहीं, बल्कि एक सच्चे हिन्दुस्तानी की मौत है, जिसे वह देश की सबसे छोटी अकलियत (अल्पसंख्यक) कहते थे। राही की मौत मेरे लिए एक जाती सदमा है और उन तमाम हिन्दोस्तानियों के लिए भी, जो अपने इस अज़ीम मुल्क को, इस गुलशन को सर-सब्ज, चमनदार और फलता-फूलता देखना चाहते हैं। जिन्हें इस अजीम मुल्क के इतिहास, इसकी संस्कृति, इसकी मिट्टी, इसके नदी-नालों से प्यार है। इसलिए राही की याद उन सबको हमेशा सताती रहेगी।
कुरबान अली
राही के दो संक्षिप्त लेख
फूलों की महक पर लाशों की गंध
यह सागर मंथन की घड़ी है। अमृत भी निकलेगा और विष भी। यह पता नहीं कि विष पीनेवाले कितने निकलेंगे, क्योंकि अमृत पीने वालों की तो भीड़ खड़ी है और मै। यह सोच रहा हूं कि क्या शंकर भगवान के उत्तराधिकारियों की संतान बिल्कुल ही खत्म हो चुकी है? यदि नहीं तो हमारे महान भारतवर्ष के बुद्धिजीवी कहां हैं? क्या मैं यह समझ लूं कि यह सन्नाटा बांझ है और इसकी कोख में कोई तूफान नहीं! सामाजिक कार्यकर्ताओं, अध्यापकों, कवियों और लेखकों ने चुप क्यों साध रखी है? बस वही क्यों बोल रहे हैं जिनका पेशा राजनीति है?
जहांगीर ने कहा था कि जो जमीन पर कहीं जन्नत है तो वह यहीं है। मैं उसी जन्नत को तलाश कर रहा हूं और वह मुझे दिखाई नहीं दे रही है। मेरे चारों तरफ तो बेरोजगारी, भूख, जन-हरिजन हिन्दू-मुसलमान, सिख-हिन्दू लाशों का एक चटियल मैदान पड़ा है। न आदम न आदमजाद। फूलों की महक पर लाशों की महक की तहें जमी हुई। स्कूलों में नफरतों की किताबें खुली हुई। कानून की बंदूकों में सांप्रदायिकता की गोलियां वास्तव में मुझ जैसे लाखों-लाख भारतीय नागरिकों का सीना छेद गई है। परन्तु क्या पी.ए.सी. को बुरा-भला कह कर कलेजा ठंडा कर लेना काफी है? मैं सवाल चाहता हूं कि यदि पी.ए.सी. में मुसलमानों का बहुमत होता तो क्या होता? क्या मलियाना में सर झुकाए खड़े हिन्दू लाशें गिर रहे होते।
इसलिए खतरे की बात यह नहीं कि कहां हिन्दुओं ने मुसलमानों को मार गिराया और कहां सिखों ने हिन्दुओं को! खतरे की बात यह है कि हम धर्म के आधार पर लाशों को छांट कर अलग-अलग रखने लगे हैं!
मैं जानना चाहता हूं कि हम कहते तो यह हैं कि हर पांचवें बरस हम भारत के आदमी गिनने निकलते हैं, पर सच तो यही है कि हम हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मण, हरिजन गिनकर लौट आते हैं। इसीलिए कोई मुझे यह नहीं बता पाता कि हिन्दुस्तान में आदमी कितने हैं! और शायद इसीलिए यहां कोई आदमी की समस्या पर सोचने के लिए तैयार नहीं है। किसी को शायद ठीक से पता ही नहीं कि यहां आदमी रहते भी हैं कि नहीं रहते! वोट तो धर्मों के पास हैं। जातियों के पास हैं। क्षेत्रों के पास है। लोकतंत्र का यही तो ऐब है कि यह वोट चबाकर जीता है! यदि वोटों तक इसका हाथ यूं नहीं पहुंचेगा तो यह वोट तोड़ने के लिए लाशों के ढेर पर भी खड़ा हो जाएगा। इसलिए आवश्यक है कि किसी तरह वोटों को धर्म, जाति और क्षेत्र से, मुक्ति दिलाई जाए।
मेरा कहना है कि हम चार बरस तक सांप्रदायिकता के विरोध में डटकर भाषण देते हैं परन्तु पांचवें बरस धर्मवाद और जातिवाद के नाम पर वोट मांगते हैं।
जरूरी बात यह है कि पहले चुनाव कानूनों में परिवर्तन किए जाएं। उन्हें धर्म, जातिवाद और क्षेत्रवाद से मुक्ति दिलाए जाए। जिसका एक तरीका यह भी हो सकता है कि संशोधन द्वारा संविधान में यह सुधार किया जाए कि व्यक्ति से चुनाव लड़ने का अधिकार ले लिया जाए।
क्या रामायण सिर्फ़ हिन्दुस्तान के हिन्दुओं की धरोहर है?
क्या रामायण सिर्फ हिन्दुस्तान के हिन्दुओं की धरोहर है? क्या उसकी झोली में, समूचे हिन्दुस्तान की झोली में डालने के लिए कुछ भी नहीं? धरोहर का आधार क्या है? श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं या हिन्दू मर्यादा पुरुषोत्तम? क्या यह धारावाहिक केवल हिन्दुओं के लिए बनाया और दिखाया गया? यदि ऐसा है तो यह सीरियल दिखला कर दूरदर्शन ने भारत वर्ष के साथ अच्छा नहीं किया। दूरदर्शन इसलिए नहीं है कि वह धर्मों और मजहबों की डोली उठाये-उठाये घर-घर जाए। कल मुसलमान मांग करेंगे कि मुहर्रम के दस दिनों में दूरदर्शन पर केवल मुहर्रम के कार्यक्रम आया करें, तब दूरदर्शन क्या करेगा? कल यदि ईसाइयों ने मांग की कि क्रिसमस के दिनों में बाइबिल पर आधारित कार्यक्रमों के सिवा कुछ और दिखलाया ही न जाए तब दूरदर्शन क्या करेगा? यही मांग बौद्ध और जैन समुदाय के लोग भी कर सकते हैं।
बाल्मीकि और तुलसीदास का उत्तराधिकारी मैं भी हूं और यह बात ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ को हिन्दू-काव्य माननेवाले जितनी जल्दी समझ जाए उतना ही अच्छा होगा। यह पता लगाने के लिए एक सरकारी कमीशन बिठाना चाहिए कि हमारे भारत वर्ष में किस चीज का आधार क्या है? हमारी राजनीति आधारहीन और दिशाहीन है। अपनी-अपनी जेबों के सिवा कहां जाना है और किधर से जाना है। यह नहीं मालूम…. तो फिर यदि रामानंद सागर की रामायण दिशाहीन निकले, तो क्या शिकायत? यह सीरियल देखकर मुझे लगा कि ‘और इनसान मर गया’ लिखने में जो इनसान मर गया था, उसी ने यह धारावाहिक लिखा है। क्योंकि इस धारावाहिक में कोई बयान, कोई स्टेटमेंट नहीं है। यह तक पता नहीं चलता कि इस धारावाहिक में जिन मूल्यों के नीचे लकीर खींची गई है वे मूल्य क्या हैं और स्वयं रामानंद सागर अपने धारावाहिक के तिराहे पर कहां खड़े हैं? यह कहना क्या चाहते हैं? और दूरदर्शनवाले इस धारावाहिक के द्वारा भारत वर्ष के नागरिकों तक कौन-सा पैगाम भेजने की कोशिश कर रहे थे?
धरोहर का आधार क्या है?
धर्मों में बांटनेवाले लोग।
हिन्दुस्तानी राजनीति में धर्म कोई नई चीज नहीं है। हमारा तो नारा ही था कि ‘हिन्दू, मुसलिम, सिख, ईसाई-सब आपस में भाई-भाई’। हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने शुरू से ही इसका ध्यान रखा था कि हिन्दुस्तान भीतर से हमेशा बंटा रहे कि हर हिन्दुस्तानी अपने देश की जगह अपने धर्म को अपनी पहचान माने। हमारे नेताओं ने यह कभी नहीं कहा कि हम हिन्दुस्तानी हैं। वे हमेशा इस बात पर जोर देते रहे कि हम धर्मों में बंटे हुए लोग हैं। कि हम हैं तो अलग-अलग पर हमें लड़ना नहीं चाहिए। यही कारण है कि हमारी राजनीति उस अंबिका की तरह है जिसने ऋषि व्यास को देखकर आंखें बंद कर ली थीं। हम जिस रानजीति के उत्तराधिकारी हैं वह सिर्फ धृतराष्ट्रों ही को जन्म दे सकती है। यदि हमें जीना है और देश को आगे ले जाना है तो हमें इन अन्धे नेताओं की उंगली पकड़कर चलना छोड़ना पड़ेगा।
राही मासूम रज़ा
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